Sunday, 13 November 2016

जलधि और किनारा : अमावस की रात


क्यों?
क्यों जलधि?
क्यों तुम अपने हमेशा के किनारे से दूर हो !
क्यों इतनी दूर हो मुझसे ?

बहती हुई तुम ये जो गीत गुनगुना रही हो,
मुझे सुनना है ।
ये जो तुम मेरी तरफ आती हुई लगती हो,
और फिर अचानक कहीं गायब हो जाती हो,
और फिर वापिस ऐसा लगता है की,
तुम मेरे बिना रह नहीं सकती ।
और वापिस मेरी ही तरफ आ रही हो,
आ रही हो ना।

इंतज़ार कर रहा हूँ  मैं वहीँ पर,
एक किनारा कर रहा है अपनी जलधि का इंतज़ार,
अमावस की एक रात को,
उसी किनारे पर जहाँ हम मिला करते हैं ।

वो देखो! सफ़ेद लिबास में मेरी तरफ आती हुई तुम बेहद खूबसूरत लगती हो ,
लेकिन ओह नहीं, वापिस क्यों चली गयी,
काश मैं आ पता तुम्हारे करीब !
लेकिन फिर मैं वो किनारा नहीं रह पाउँगा जो तुम्हारे लिए हमेशा इंतज़ार करता है।

मैं गहरा नहीं हूँ लेकिन कई इंसानो के गहरे गम मुझे पता है,
लेकिन आज कोई मुझसे अपनी गहराइयां नहीं साझा कर रहा।
तुम मेरे साथ नही होती हो तो मेरा कोई वज़ूद नहीं ।
आजाओ जल्दी जलधि।
क्यों रूठी हो तुम,
ओह अच्छा! याद आया,
हमेशा आने वाला चाँद थोड़ा भी नहीं ला पाया आज अमावस को मैं,
इसलिए मुझसे इतनी दूर हो तुम ।
अफ़सोस है जलधि,
नहीं ला पाया मैं तुम्हारा चाँद,
लेकिन जल्दी ही ला दूंगा,
तुम भी कहा रह सकोगी मुझसे इतनी देर तक दूर,
कल ही आ जाना मेरे पास,
और उसी वक़्त मैं तुम्हें एक टुकड़ा चाँद का ला दूंगा।

कमबख्त ये चाँद भी अजीब है,
कभी पूरा चाँद ला दूँ तो तुम मेरे पास उमड़ उमड़ कर आती हो,
और धीरे धीरे करके एक एक हिस्सा कम होता है,
और तुम भी दूर जाती रहती हो,
और सताती हो।

जानती भी हो की कितने सालो से,
जतन कर रहा हूँ चाँद लाने का,
लेकिन बड़ा नटखट है ये भी,
तुम्हारी तरह। 

सोच रहा हूँ की शुक्रिया ही कह दूँ,
भले तुम्हे मुझसे दूर वो ले जाता है,
लेकिन पास भी वो ही तो लाता है ।
शुक्रिया है तुम्हे ऐ चाँद,
आखिर तुम भी एक कारण हो मेरे अस्तित्व का ।

और ये सूरज,
मुझसे छीन ही लेता है तुम्हें,
लेकिन वापिस भी तो आती हो तुम,
बरसती हो,
एक नए रूप में,
चारो और से बहती हुई,
आती हो मुझसे ही मिलने आखिर में,
ऐसा लगता है की बिछड़ भी जाये एक बार तो क्या,
मिलन निश्चित है,
कितना खुश नशीब हूँ न मैं ।

पूर्णिमा आने वाली है,
अपने पूर्ण मिलन का समय,
लेकिन आएगी भी तो केवल एक दिन के लिए।
इतने पास है फिर भी कितने दूर है,
या कितने दूर है फिर भी इतने मन के पास है,
इंतज़ार रहेगा मुझे तुम्हारा,
आओगी ना,
चांदनी रात में गुफ्तगू जो करनी है।

Monday, 7 November 2016

वो बाबा और उनका थरमस

वो बाबा - कहानी वाली कविता :

रोज़  जिस  सड़क  से  गुज़रता  हूँ 
जाने  को  काम  के  लिए 
बैठे  रहते  है  एक  बाबा 
अपना  कुछ  कीमती  सामान  लिए  
कुछ  फल, सुखी  रोटियां
और  साथ  में  एक  कम्बल  और  कुछ  सामान
जिसमे  उनका थरमस  सबसे  कीमती| 
नहीं ..शायद  रोटिया  ज्यादा  कीमती  होगी ,
उफ़्फ़, मुझे मालूम  नहीं ..मेरा  पेट  भरा  रहता है   उस  वक़्त। 

बैठे  रहते  है सड़क  के किनारे  फुटपाथ  पर ..एक  ब्रिज  के  नीचे
शायद  कोई  खास  जगह  होगी 
या यूँही कोई  जगह जहाँ  धुप  न  पड़े  
और  बारिश  की  यादें  भी ताज़ा  न  हो । 
बस  अपने  पास  के  अँधेरे  के  साथ 
काट देते  है  दिन  और  रात। 

हाथ  की  हथेलियों  को  खुरचते  रहते  है एक  सुई  से 
शायद  हाथ  की  लकीरें बदलने  की  कोशिश में । 

पता  नहीं  उस  व्यस्त  सड़क  पर  
कैसे  वो  अब  तक  ज़िंदा  है
जहां  गाड़ी  रुकने  का  नाम  नहीं  ले  सकती ।
देखा  है   मैंने एक गाड़ी  के  रुकने  की  कोशिश  में 
पीछे  वाले  परेशान  हो  जाते  है ।
शायद  कुछ  पल  दफ्तर देरी  से  पहुंचने  का  डर  लगता  है  उन्हें  भी  
मेरी  तरह । 

देखा  है  मैंने  उनको 
थरमस  में  से  कुछ  पीते  हुए 
क्या  वो  ठंडा  पानी  था  या  ठंडी  चाय 
या  केवल  वो  कोई  गुज़रे  वक़्त  को  वापिस  जी  रहे  थे 
जाने  किसकी  याद  आ रही  होगी । 

मैं  सोचता  हूँ  की  कौन  उन्हें 
दे  जाता  है  रोज़  ये  फल  और  रोटियां
भला  इंसान  ही  होगा 
या  कोई  ऐसा  जिसे  दर्द   होता  होगा  बड़ो  के  साए  का  न  होंने  का । 

इस  मुफलिसी  में  भी कोई  ताला  नहीं  लगाते  वो 
और  सो  जाते  है  कभी भी 
बेफिक्र  और  बेपरवाह 
या  उन्हें  ज़माने  का  पता  नहीं  की 
यदि सामान  इक्क्ठा  किया  है  और 
सुरक्षा के इंतेज़ामात  भी  किये 
लेकिन  फिर  भी  चैन  की  नींद  नहीं  सोना  चाहिए  । 
लेकिन  बाबा ..उन्हें  फ़िक्र  ही  नहीं 
सो  जाते  है  ऐसे   ही 
सामान  को  लावारिश  छोड़  के  
शायद  ज्यादा  ही  भरोसा  है  उन्हें  दुनिया वालो पर।
जलन  होती  है   ऐसी  नींद  देख  के 
 मन  पूछता  है  कौन  ज्यादा  सुखी  है  
मैं  या  बाबा . .??

लेकिन  एक  दिन 
सड़क  से  गुज़रते  हुए 
मैं  हैरान  हो  गया 
देखा  तो  बाबा  थे  ही नहीं 
उन्हें  वहां  नहीं  पाकर 
मैं  क्यों  हैरान  था 
समझ  नहीं  पाया ।
रोज  देखने  भर  का  भी  कोई   रिश्ता  होता  होगा 
नाम  नहीं  दिया  बस  दुनिया  वालो  ने । 

देखा  उस  रोज की  
कोई  नहीं  था  उनकी  जगह 
सामान  अस्त  व्यस्त 
एक  सेव  सड़क  पर  पहुंच  चुकी  थी 
और  कुछ  रोटियां  फुटपाथ  के   निचे  गिरी  थी 
ऐसा  लगा  की  बाबा  के  घर  में  चोरी  हो गयी ।
थरमस  ढूंढने  की  कोशिश  की 
लेकिन  अजीब  बात  थी  वो  नहीं  दिखा  मुझे । 
क्या  हुआ  ऐसा ..अचानक  कहाँ  चले  गए 
सामान  ऐसे  बिखरा  हुआ 
दिल  ने  दुआ  की  ऊपर  वाले से 
बाबा  को  सलामत  रखना ..जहां   भी   हो 
और  मैं  बेचारा  सा  आगे  निकल  गया 
दफ्तर  पहुंचने  में  देर  हो रहा  था 
और  आज  तो  मालिक  भी  आने  वाले  थे । 

अगले  दिन  तो  और  भी अचम्भा  हुआ 
उनकी  जगह  कोई  और  शख्स  बैठा  था 
लगभग  उसी  सामान  के   साथ 
दाढ़ी  के   बाल  अभी  काले  ही  थे 
बाबा  से  छोटा  था 
लेकिन  उनके  जैसा  ही 
जाने  उनका  बेटा  था  या  रिश्तेदार  
लेकिन  बाबा  कहाँ   गए ..
कैसे  है  ..कहाँ  है  ..
शायद  नए  छोटे  बाबा  ने  भगा दिया 
या   कोई  और  कही  ले  गया 
लेकिन  थरमस  साथ  क्यों  ले गए। 
अजीब  प्रश्न   था  और
पूछ  भी  नहीं  सकता । 
शायद  कोई  याद  जुडी  होगी 
अपनी  खुशहाल  पुरानी  जिंदगी  की 
जिसमे  जीवनसाथी  प्यार  से  चाय  थमाती  होगी । 
या  हो  सकता  है  की  बाबा  ही  अपनी  बेटी  को  कॉफ़ी  डाल  के देते  होंगे 
देर  रात तक  पढ़ने  के  लिए , जागते  रहने  के  लिए 
जो  अब  दूसरे घर  में  है । 
या  ये  भी  तो  हो  सकता  है  की  
उनका  बेटा  उनकी  सेवा  करता  होगा  
और  सर्द  रात  को  सोने  से  पहले  
गर्म  पानी  भर  कर  रखता  होगा । 
लेकिन  अब  वो  नहीं  है  या  वो  रिश्ता  नहीं 
होने  को  ऐसा  भी  हो  सकता  है  की 
बाबा  की  माँ  ने  उन्हें  ये  थरमस  दिया  हो 
बाकी  सामान  के  साथ  दूर  गाँव  में  रहने  आने  के  लिए 
बाकी सामान  नहीं  रहा ..अब  केवल  थरमस  बचा  है । 

रिश्ते  न  रहे  या  भले 
रिश्ते  निभाने  वाले  न  रहे 
यादें  जो  रह  जाती है  किसी  थरमस  में 
उन्हें  निकालना  नामुमकिन  है 
समझ  ये  नहीं  आता  की  
अब  थरमस  बड़ा  है  या  वो  यादें । 
यादो  में  थरमस  है या 
थरमस  में  यादें ।