Sunday, 15 April 2018

Two Things. Not For Rapists BUT FOR YOU.

Two things:

1. You are condemning the rapists. Good. But plz also look into yourself. You are using abusive language and doing exactly the same things through your words which they did with action. Although they did with someone stranger.

Not supporting them. But criticizing you for just burning a candle when you feel like.
Stop using abusive words. There are many other cool things if you really want to appear cool.

First you show respect to them. Then you will be more powerful to condemn rapists.

If you really want to see the change, YOU WILL BRING IT.


2. Why does it have to be unique to catch your attention? Why does it have to happen at someplace beyond imagination like a running bus or a temple to force you to speak against rape?

Why there is this category of USUAL RAPE & NIRBHAYA/ASIFA CASE. A rape is a rape. Why we don't stand against each and every case? Because Rape happens every day and you are too busy to stand against each rape? May be. So we pick up the ones which are too horrific and stand against those selective ones.

But God forbid, if you don't stand against each rape today, you may have to beg people to stand against the one with your known. Yes, harsh hitting but I need to tell you this.

That's it.

Wednesday, 28 February 2018

"वो अब भी कहते हैं कि.."

वो अब भी कहते हैं कि हमने उनसे महोब्बत नहीं की,
कमबख्त कोई उन्हें मेरे दिल के हाल बताते ही नहीं।

वो अब भी कहते हैं कि हमने उनसे महोब्बत नहीं की,
जाने क्यों वो हमें समझते ही नहीं।

वो अब भी कहते हैं कि हमने उनसे महोब्बत नहीं की,
वो ऐसा समझते हैं तो अब हम उनको कुछ समझाते भी नहीं।

वो अब भी कहते हैं कि हमने उनसे महोब्बत नहीं की,
सोचता हूँ कि कहीं मेरी तरफ से कुछ कमी तो नहीं।

वो अब भी कहते हैं कि हमने उनसे महोब्बत नहीं की,
मतलब यह भी है कि अब किसी एक में वो बात ही नहीं।

Wednesday, 14 February 2018

मंत्रालय building : आत्महत्या और safety net



http://www.asianage.com/metros/mumbai/080218/suicide-attempts-embarrass-government.html

देशभक्त: हा हा हा हा!

आम आदमी: अरे भाई क्यों हंस रहे हो अचानक?!

देशभक्त: अपने मंत्री लोगो ने क्या काम किया है, पता है? अच्छा तुम्हें क्या पता होगा, तुम्हें क्या करना है कि समाज में क्या हो रहा है। तुम्हारी गाड़ी ठीक से चल रही है बस। बाकी भाड़ में जाये भले।

आम आदमी: हाँ भई, नही पता हमें। ऐसे फालतू की टेंशन नही लेता मैं। होना तो वही है जो मंत्रियों को ठीक लगेगा। लेकिन किया क्या है उन्होंने ऐसा जो तुम ठहाका लगा कि हंस रहे हो!

देशभक्त: उन्होंने indirectly बोला है कि तुम्हें मरना है तो भले मर जाओ लेकिन मंत्रालय की building में मरने आओगे तो अब मौत भी नसीब नही होगी। इसका मतलब ये की जिंदगी सुधर जाने की तो उम्मीद वैसे भी नही थी किसी को वहाँ जाने पर..अब आप वहाँ मर भी नहीं सकते।

आम आदमी: नहीं समझा।

देशभक्त: मंत्रालय की building में 2-3 लोगों ने आत्महत्या करली। किसी ने जमीन के बेतुके सरकारी मुआवजे को लेकर तो किसी ने बर्बाद फसल को लेकर। मतलब कोई सरकार की समझ से दुखी था तो कोई भगवान के गुस्से से और सरकार के निट्ठल्ले पन से। तो अब उन्होंने मंत्रालय की building में जाकर आत्महत्या करली। जैसे भगत सिंह ने अंग्रेज़ो की नाक के नीचे बम फोड़े थे, वैसे ही अब लोगों को मंत्रियों की आंखों के आगे जान देनी पड़ रही है कि माई बाप, अब तो सुन लो । ...हा हा हा हा!

आम आदमी: अरे उनकी आत्महत्या पर हंस रहे हो!?

देशभक्त: नहीं, आगे जो बताने वाला था उसपे हंसी आगयी। तो सरकार ने सोचा कि ये समस्यायें तो हम हल कर नहीं पाएंगे, तो लोगों को मरने की favourite जगह कम कर देते हैं। तो उन्होंने मंत्रालय में safety net बांध दिए। बोल रहे हैं कि अब यहाँ मर के दिखाओ।

आम आदमी: हा हा हा। मतलब काम तो करेंगे तब करेंगे, तुम यहाँ मरना बंद करो। लगता है पूरे शहर में safety net बांधने वाले हैं फिर तो।

देशभक्त: नहीं रे बबुआ। इन्हें तो बस ये डर है कि मंत्रालय की building में मरेंगे तो भूत बनके उन्हें ही ना सताए। बाकी भले मरते रहो कहीं भी।

आम आदमी: मतलब मंत्रालय पहले लोग समस्या निपटाने जाते थे उम्मीद के साथ। अब उम्मीद खत्म हो रही है तो खुद को निपटाने जा रहे है।

देशभक्त: ज्यादा बोल रहा है भाई तू। सरकार काम कर रही है। ज्यादा मत बोल।

आम आदमी: सॉरी भाई। मेरी local ट्रेन आगयी। मैं तैयार हो जाता हूँ जानवर बनने के लिए।



Tuesday, 13 February 2018

तलब: घर और प्यार

जब ये दुनिया मुझे सताती है,
तुम्हारे साथ वक़्त गुजारने की तलब बढ़ जाती है।

चाहता तो हूँ हर वक़्त तुम्हारे पास रहना,
लेकिन हर बात कहाँ सच हो पाती है।

वक़्त बेवक़्त तुम ख्यालों में आ जाती हो,
धीरे धीरे तुम्हारी जादूगरी समझ आती है।

इतने करीब से तो मैंने अपने आप को भी नहीं देखा,
जितना तुम्हारी खूबसूरती अपने पास ले जाती है।

देख लो कि कितना खुशनसीब हूँ मैं,
इतनी महोब्बत कहाँ किसी को मिल पाती है।

चेहरे का नक्शा ही बदल जाता है तुम्हारी तस्वीर देख कर,
मेरी मुस्कराहट जो दूर तक खिंची चली जाती है।

जानती हो कितनी बैचैनी रहती है मिलने की,
तुम्हारे साथ वाली याद तुम्हारे दरवाज़े तक ले आती है।

मौके की तलाश में रहता हूँ तुमसे मिलने की,
ज़िन्दगी, तेरा शुक्र गुज़ार हूँ, मिलने के इतने मौके देती है।

जाने क्या है तुम्हारी मिट्टी में,
तुम्हारी सुगंध मुझे काफी दूर से औऱ देर तक आती है।

कहा सोचा था की ऐसा रिश्ता बनेगा हमारा,
किसी रिश्ते को बिछड़न तो किसी को मिलाप ऐसा बनाती है।

कितना खुश हूँ मैं, क्या बताऊँ,
बस समझ लो कि तुमसे मिलते ही एक दूसरी दुनिया बन जाती है।

बता दो अब कब मिलना होगा,
तलब बढ़ती जाती है।

Saturday, 3 February 2018

व्यंग्य: महा नगरपालिका - secret discussion

"Sir, कोई उपाय नहीं है।"

" सोच के बोल रहे हो या वोइच हर बार वाला जवाब है"

"अरे क्या sir, मैं ऐसे काम नहीं करता। सोचने का काम अपना थोड़ी है..हा हा!"

"तो किसका है..?"

"येईच तो मजेदार बात है sir जी..अपना काम है अक्खा पब्लिक को सुविधा देना..लेकिन पब्लिक को कुछ पड़ी नहीं है सुविधा लेने की..जो जैसा चल रहा है चलने दो..बहोत ही शरीफ है.. देखो कैसे लोकल में जानवरों की तरह मर पिट के जाती है कितने साल से फिर भी चु भी नही करती..अब वो शांत है तो हम क्यों फालतू में तकलीफ लें...पड़े रहेंगें जैसे है वैसे। हाँ, जब जरूरत पड़ती है तो अखबार में और सबसे मजेदार फेसबुक पे इतने suggestion मिल जाते है ना कि कई बार तो लगता है की मेरी पगार ये सब ही ले जाएंगे"

"हा हा हा हा.."

"ही ही ही ही.."

"जनता भी जोरदार चीज है"

"है ही sir जी वो तो..वो नहीं होती तो अपनी salary कहाँ से आती। बिना ज्यादा कुछ काम किये पगार मिल जाये, tension भी कुछ नहीं क्यों कि उसके लिए आप हो ही हमारे ऊपर, बस ज़िन्दगी में ओर क्या चाहिए। ये ग़ालिब, जगजीत सिंह यूँ ही परेशान रहे जिंदगी भर।"

"वैसे ग़ज़ल अच्छी गाता है जगजीत सिंह।... अरे, ग़ज़ल से याद आया ये बजट वजट कुछ पल्ले पड़ता है क्या यार तुम्हारे..हमे भी समझा दिया करो..तुम तो quota वाले भी नहीं हो तो समझ आता होगा न कुछ..।"

"अरे sir काहे शर्मिंदा करते हो..समझ आता तो हम आपकी कुर्सी पे नहीं बैठ जाते!"

"हाहाहाहा"

"हिहिहिहि"

"बहोत मज़ाक हो गया अब..वो सड़के सही करवा दो यार..वापिस न्यूज़ वालों ने पिछली साल की न्यूज़ कॉपी पेस्ट कर दी कि मानसून आने वाला है और अभी भी इतनी जगह गड्ढे भरने बाकी है.. इनको भी न ससुर काम नहीं है कुछ और..।"

"अरे sir काहे टेंशन ले रहे हो आप..हर बार छपता है कुछ उखड़ता थोड़ी है..अपने भी लास्ट बार वाला statement ढूंढ के कॉपी पेस्ट कर देते हैं ना..सड़के कौन सही करवाएगा..स्टेटमेंट कॉपी पेस्ट करके प्रेस release करदो..बस हो गया अगली साल तक का जुगाड़।"

"मुझे जवाब देना है ऊपर भी"

"हाहाहाहा..ये लाइन मस्त है.. सब काम ऊपर वाले के नाम पे या उसी के भरोसे पे ही होते हैं अपने तो। वैसे sir ऊपर वाले जवाब लेते तो गड्ढे खुद जाने वाली सड़के ही नही बनती ना..बन भी गयी तो वो गड्ढे हर साल नही खुदते..एक बार मे ही permanent काम हो जाता..।"

"अरे यार..तुम्हें इतना टाइम होगया डिपार्टमेंट में की तू मुझ जैसे नए लोगों को डरने भी नही देता..। चल तू बोल रहा है तो जाने देता हूँ..बाद में देखेंगे.. अभी तो अपना कार्यक्रम सेट करते हैं आज शाम का..कौनसी पीता है तू..।"

"जो मिल जाये sir..मेरा कोई ईमान धर्म नहीं है..।"

"हाहाहा..मेरा भी..।"



-आम आदमी, पीड़ित आदमी एवं राघव कल्याणी। 

नीचे दी हुई link भी खोल के देखलो एक बार..गड्ढे से बच के जाना link तक।

https://m.hindustantimes.com/mumbai-news/potholes-are-here-to-stay-as-mumbai-civic-body-is-yet-to-repair-1-645-roads/story-97Lwtc4sKrbsqfhuVrXcsL.html

Wednesday, 20 December 2017

जिंदगी और प्यार : जो पता होता तो..

दूर जाना इतना भी आसां नही है जितना सोचा था,
जो पता होता तो हम कमबख्त पास आने की ज़िद करते ही नहीं।

कैसे एक आवाज़ इरादों को कमजोर करने की कोशिश करती है,
जो पता होता तो वो दगाबाज़ आवाज़ हम दिल से लगाते ही नहीं।

ये आग का दरिया इतना लंबा है,
जो पता होता तो बिना सोचे छलांग लगते ही नहीं।

कैसे चाँद को देख कर खो जाते है कभी कभी,
जो पता होता तो दागी चाँद को तुमसे कमतर बताते ही नहीं।

जो हो रहा है, सोचा था उससे कितना अलग हो रहा है,
जो पता होता तो अपने भविष्य में तुम्हें रखते ही नहीं।

इतना सोचते रहे लेकिन कुछ और ही होता रहे,
जो पता होता कि जिंदगी भूलभुलैया है, इतना सोचते ही नहीं।

इस रास्ते से गुजरते हैं तो तुम्हारी याद आती है,
जो पता होता तो रास्ते और यादें एक साथ बनाते ही नहीं।

ठंड में वो शॉल याद आ जाती है जिसने मुझे बचाया था,
जो पता होता तो शॉल को दिल से लगता ही नहीं।

ना शरीर खुश है ना मन खुश है,
जो पता होता इतनी मेहनत करते ही नहीं।

मिलने आने के बाद और भी मुश्किल हो गया अब तो,
जो पता होता तो प्यार में भाग के आते ही नहीं।

इश्क़ का पत्थर भी कभी अपने ही नीचे हमे दबा देगा,
जो पता होता तो ये पत्थर उठाते ही नहीं।

पता चला कि खुद को रोकना इतना मुश्किल है,
जो पता होता तो ऐसी नौबत लाते ही नहीं।

अब जो हुआ सो हुआ, जिंदगी निभानी ही है,
जो ये सब न होता, जिंदगी, जिंदगी कहलाती ही नहीं।

-राघव कल्याणी

Monday, 11 December 2017

बाबा और पोती

मेरे गाँव मे एक बाबा हैं तकरीबन 75 साल के, जिन्हें मैं जानता हूँ उनकी पोती की नज़र से।

बाबा जो अपनी पोती को घर में सबसे ज्यादा प्यार करते
औऱ पोती, वो तो उन्हें अपना बेटा मानती ।

बाबा शरीर से कमजोर है।
लेकिन दिल उनका अब भी रिश्तों में मज़बूत है।
पोती ने बताया कि वो जब भी घर आते,
सब के लिए कुछ न कुछ लाते ही थे।
पोती को चॉक्लेट और किताबें पसंद थी,
सो बस, पेट के लिए और दिमाग़ के लिए कुछ खाने का लाते रहते थे।

गाँव में रहते थे,
बाकी कई खामियों की तरह,
बेहतर भविष्य के लिए दूर शहर जाना,
बड़े घर के लिए पापा, बाबा वाला घर छोड़ना पड़ता था।

मैंने सुना कि बाबा बहुत रोये थे उस दिन।
पोती से वायदा लिया की वो हर महीने आएगी औऱ खासकर उनकी आखिरी घड़ी में जरूर आएगी।
बाबा ने कई दिनों तक अपने बेटे से यानी पोती के पापा से बात नहीं की,
सिर्फ इसीलिए की पोती को बाहर क्यों भेजा पढ़ने के लिए।

वो गमगीन थे।
लेकिन हक़ीक़त तो स्वीकार करनी ही थी।
पोती के भविष्य के आगे बाबा का मोह हार गया।
और ये एक तरफा लड़ाई गाँव के हर घर में होती है।
कहीं माँ के हाथ की गरम गरम पूरियां हार जाती है कहीं बाबा की चॉक्लेट।
कितने खुश नसीब होते हैं ना शहर वाले।

पोती जब भी मौका लगता बाबा से मिलने आती।
अपनी सारी बातें बाबा को बताती।
मुझे शंका है कि इस उम्र में बाबा को सब सुनता समझता भी होगा,
लेकिन बाबा तो उसे देख कर ही बच्चे के जैसे खुश रहते,
जैसे कोई बच्चा कई दिनों बाद माँ को देख कर खुश होता है।

बाबा की तबियत अब बार बार बिगड़ने लगती है,
हालांकि ठीक हो जाते हैं कुछ दिनों में।
पोती को बुला लिया जाता है ऐसे नाज़ुक मौको पर।
वायदा निभाने के लिए।
या शायद बीमार बाबा की खतरनाक तरकीब हो पोती को देखने की।
या भगवान पोती की दुआओं को पूरा करता है लेकिन बाबा को कष्ट देकर।

थोड़े दिन पहले ही पोती के पढ़ाई के आखिरी इम्तिहान शुरू हुए हैं।
औऱ साथ ही बाबा की तबियत में तेज गिरावट भी।
दोनों एक दूसरे की स्थिति से बेखबर।

दोनों के लिए कितना मुश्किल है ये सब,
एक तरफ पोती की बौद्धिक परीक्षा और दूसरी तरफ बाबा के शरीर का परीक्षण।
दोनों ने ही मन ही मन वायदे किये होंगे कभी, एक दूसरे को हिम्मत देने की।
दोनों का मन एक दूसरे में रहता था लेकिन फिर भी मिलना कहाँ आसान होता था।
खुद के अच्छे भविष्य की चाहत भी तो कलियुगी मोह है।
और शायद स्वार्थ भी
जिसे व्यवहारिकता की आड़ में सही मानना पड़ता है।

कुछ दिनों से बाबा उम्मीद में हैं कि पोती आने वाली है।
उम्मीद पर कल कायम है, लेकिन कल किसने देखा है।
आज रात 8 बजे बाबा के शरीर ने परीक्षण में जवाब देना बंद कर दिया।
ऐसी परिक्षा की जवाब न दो तो मृत घोषित हो जाते हो।बाबा का भी नाम अब मृत शरीर कर दिया गया।
पोती अपना वायदा नहीं रख पाई।
पोती उनसे दूर अपने इम्तिहान की तैयारी कर रही है,
इन सबसे बेखबर।
इत्तला नही की गई उसे,
उसके इम्तिहान को अग्नि परीक्षा बनने से रोक लिया गया।
लेकिन बाबा के आखिरी वक्त के इम्तिहान में वो उपस्थित भी नहीं हो पाई।

सोचता हूं बाबा की आखिरी इच्छा क्या रही होगी।
उन्होंने अपनी पोती से जल्दी से मिलाने की इच्छा करी होगी,
या उन्होंने अपनी चॉक्लेटी दुलार की पहले ही हार मान ली होगी।

सोचता हूँ कि पोती पास होती तो क्या होता। क्या बाबा कुछ दिन औऱ जी लेते?
सोचता हूँ कि अब पोती क्या कहेगी, करेगी जब उसे बताया जाएगा सब कुछ,
उसके इम्तिहान के बाद।
सोचता हूँ घर वालो पर क्या बीत रही होगी जब पोती उन्हें दोषी ठहराएगी।
खुदा जाने। क्यो ऐसे हालात पैदा करता है वो!

पोती के लिए बाबा की बातें भूतकाल हो जाएंगी।
वो अब अपना बेटा खो चुकी है।