Saturday, 3 February 2018
व्यंग्य: महा नगरपालिका - secret discussion
Wednesday, 20 December 2017
जिंदगी और प्यार : जो पता होता तो..
जो पता होता तो हम कमबख्त पास आने की ज़िद करते ही नहीं।
जो पता होता तो वो दगाबाज़ आवाज़ हम दिल से लगाते ही नहीं।
जो पता होता तो बिना सोचे छलांग लगते ही नहीं।
जो पता होता तो दागी चाँद को तुमसे कमतर बताते ही नहीं।
जो पता होता कि जिंदगी भूलभुलैया है, इतना सोचते ही नहीं।
जो पता होता तो रास्ते और यादें एक साथ बनाते ही नहीं।
जो पता होता तो शॉल को दिल से लगता ही नहीं।
जो पता होता इतनी मेहनत करते ही नहीं।
जो पता होता तो प्यार में भाग के आते ही नहीं।
जो पता होता तो ये पत्थर उठाते ही नहीं।
जो पता होता तो ऐसी नौबत लाते ही नहीं।
जो ये सब न होता, जिंदगी, जिंदगी कहलाती ही नहीं।
Monday, 11 December 2017
बाबा और पोती
मेरे गाँव मे एक बाबा हैं तकरीबन 75 साल के, जिन्हें मैं जानता हूँ उनकी पोती की नज़र से।
बाबा जो अपनी पोती को घर में सबसे ज्यादा प्यार करते
औऱ पोती, वो तो उन्हें अपना बेटा मानती ।
बाबा शरीर से कमजोर है।
लेकिन दिल उनका अब भी रिश्तों में मज़बूत है।
पोती ने बताया कि वो जब भी घर आते,
सब के लिए कुछ न कुछ लाते ही थे।
पोती को चॉक्लेट और किताबें पसंद थी,
सो बस, पेट के लिए और दिमाग़ के लिए कुछ खाने का लाते रहते थे।
गाँव में रहते थे,
बाकी कई खामियों की तरह,
बेहतर भविष्य के लिए दूर शहर जाना,
बड़े घर के लिए पापा, बाबा वाला घर छोड़ना पड़ता था।
मैंने सुना कि बाबा बहुत रोये थे उस दिन।
पोती से वायदा लिया की वो हर महीने आएगी औऱ खासकर उनकी आखिरी घड़ी में जरूर आएगी।
बाबा ने कई दिनों तक अपने बेटे से यानी पोती के पापा से बात नहीं की,
सिर्फ इसीलिए की पोती को बाहर क्यों भेजा पढ़ने के लिए।
वो गमगीन थे।
लेकिन हक़ीक़त तो स्वीकार करनी ही थी।
पोती के भविष्य के आगे बाबा का मोह हार गया।
और ये एक तरफा लड़ाई गाँव के हर घर में होती है।
कहीं माँ के हाथ की गरम गरम पूरियां हार जाती है कहीं बाबा की चॉक्लेट।
कितने खुश नसीब होते हैं ना शहर वाले।
पोती जब भी मौका लगता बाबा से मिलने आती।
अपनी सारी बातें बाबा को बताती।
मुझे शंका है कि इस उम्र में बाबा को सब सुनता समझता भी होगा,
लेकिन बाबा तो उसे देख कर ही बच्चे के जैसे खुश रहते,
जैसे कोई बच्चा कई दिनों बाद माँ को देख कर खुश होता है।
बाबा की तबियत अब बार बार बिगड़ने लगती है,
हालांकि ठीक हो जाते हैं कुछ दिनों में।
पोती को बुला लिया जाता है ऐसे नाज़ुक मौको पर।
वायदा निभाने के लिए।
या शायद बीमार बाबा की खतरनाक तरकीब हो पोती को देखने की।
या भगवान पोती की दुआओं को पूरा करता है लेकिन बाबा को कष्ट देकर।
थोड़े दिन पहले ही पोती के पढ़ाई के आखिरी इम्तिहान शुरू हुए हैं।
औऱ साथ ही बाबा की तबियत में तेज गिरावट भी।
दोनों एक दूसरे की स्थिति से बेखबर।
दोनों के लिए कितना मुश्किल है ये सब,
एक तरफ पोती की बौद्धिक परीक्षा और दूसरी तरफ बाबा के शरीर का परीक्षण।
दोनों ने ही मन ही मन वायदे किये होंगे कभी, एक दूसरे को हिम्मत देने की।
दोनों का मन एक दूसरे में रहता था लेकिन फिर भी मिलना कहाँ आसान होता था।
खुद के अच्छे भविष्य की चाहत भी तो कलियुगी मोह है।
और शायद स्वार्थ भी
जिसे व्यवहारिकता की आड़ में सही मानना पड़ता है।
कुछ दिनों से बाबा उम्मीद में हैं कि पोती आने वाली है।
उम्मीद पर कल कायम है, लेकिन कल किसने देखा है।
आज रात 8 बजे बाबा के शरीर ने परीक्षण में जवाब देना बंद कर दिया।
ऐसी परिक्षा की जवाब न दो तो मृत घोषित हो जाते हो।बाबा का भी नाम अब मृत शरीर कर दिया गया।
पोती अपना वायदा नहीं रख पाई।
पोती उनसे दूर अपने इम्तिहान की तैयारी कर रही है,
इन सबसे बेखबर।
इत्तला नही की गई उसे,
उसके इम्तिहान को अग्नि परीक्षा बनने से रोक लिया गया।
लेकिन बाबा के आखिरी वक्त के इम्तिहान में वो उपस्थित भी नहीं हो पाई।
सोचता हूं बाबा की आखिरी इच्छा क्या रही होगी।
उन्होंने अपनी पोती से जल्दी से मिलाने की इच्छा करी होगी,
या उन्होंने अपनी चॉक्लेटी दुलार की पहले ही हार मान ली होगी।
सोचता हूँ कि पोती पास होती तो क्या होता। क्या बाबा कुछ दिन औऱ जी लेते?
सोचता हूँ कि अब पोती क्या कहेगी, करेगी जब उसे बताया जाएगा सब कुछ,
उसके इम्तिहान के बाद।
सोचता हूँ घर वालो पर क्या बीत रही होगी जब पोती उन्हें दोषी ठहराएगी।
खुदा जाने। क्यो ऐसे हालात पैदा करता है वो!
पोती के लिए बाबा की बातें भूतकाल हो जाएंगी।
वो अब अपना बेटा खो चुकी है।
Saturday, 30 September 2017
एलफिंस्टन हादसा
नवरात्रि के हिसाब से मैने रंग पहना है,
जिंदगी का नया पन्ना शुरू करने की उमंग,
माँ का आशिर्वाद साथ में,
यही सोच के चल रही हूँ ।
लेकिन मुंबई का ट्रैफिक कहाँ कुछ समझता है,
एम्बुलेंस को जगह नहीं देता,
मैं तो क्या ही चीज़ हूँ,
बस ट्रैफिक सह रही हूँ ।
स्टेशन पहुँच कर इतनी भीड़ देख पहले ही सहम गयी,
Ola uber लंबे रास्तो में अमीरों के खेल है,
सब लोकल से ही जाते हैं,
कोई नहीं, अब मैं भी चढ़ गयी हूँ ।
Indiabulls बिल्डिंग में मेरा इंटरव्यू है,
इतनी तेज बारिश का इस महीने में आना आश्चर्य है ,
लेकिन कई बार आती है और कुछ परेशान भी करती है,
पाया कि ब्रिज पर भीड़ इकट्ठा है
जाने क्यों है, लेकिन फिर भी और लोग इक्कठे हो रहे है,
सबको जाना है काम पर, और मुझे भी,
मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा हो गयी।
लेकिन यह क्या हुआ, यह शोरगुल इतना अचानक,
सब चिल्ला क्यों रहे है,
कोई बढ़ ही नहीं रहा आगे और पीछे से धक्के आ रहे है,
मेरे पास वाले सब चिल्ला रहे हैं।
पता नहीं उसे उस भीड़ में गिरा दिया गया या खुद गिर गया,
बहरहाल, कोई उसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है,
लेकिन हैरत है कि लोग उसके गिरने के बाद भी बढ़े ही जा रहे है।
शायद बेहोश और अब तो मौत के करीब,
कुछ लोग चिल्लाये उसकी मदद के लिए,
जगह बनाने की कोशिश में कुछ और गिर गए शायद,
और यहाँ भगदड़ सी मच गई ।
ये क्या ! मैं भी गिर चुकी हूँ अब,
मुझे लोगों के जूते दिख रहे है,
लोग अपना सामान जो जगह रोके हुए था, फेंक रहे है,
मुझे गिरता हुआ सामान भी दिख रहा है,
मैं महसूस कर पा रही हूँ वो आवाजें
और लोगों का उपेक्षा करते हुए बढ़ना,
कोई मेरे मुँह पर पाँव रख रहा है तो कोई पाँव पर,
किसी को सुध नही है क्योंकि सबको खुद की जान बचानी है,
हवाईजहाज की कुर्सी की पेटी वाली घोषणा सबने ही सुनी हुई है, लग रहा है।
आह!! किसी ने मेरे पेट पर पाँव रखा और मैं चिल्ला पड़ी,
मेरे पास और भी लोग गिरे हुए हैं,
वो भी चिल्ला रहे हैं,
लेकिन अफसोस, अभी, आज सुनने वाला कोई भी नहीं है।
मुझे याद आया वो मम्मी का दही खिलाना,
पापा का आशिर्वाद देना,
लेकिन इस वक़्त लग रहा है कि कुछ काम नही आएगा,
मुझे ताकत चाहिए कि मैं खुद उठ सकूँ,
काश आज बारिश या भीड़ देख कर मैं रुक जाती थोड़ा और,
लेकिन इंटरव्यू वाले कितना ही समझते उस बात को।
आज आखिरी दिन शक्ति की माँ दुर्गा को भी याद किया,
मेरे हाथों को दबाते हुए कोई आगे बढ़ गया,
अभी किसी ने मेरे गर्दन पर पाँव रख दिया,
मुझे बिल्कुल सांस नहीं आ रही है,
क्या इन लोगों के पाँवो को अहसास नहीं होगा कि वो किसके ऊपर हैं,
या शायद उन्हें निकलना है बस इसीलिए वो मुझे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।
समझ नहीं आ रहा किसको गाली दूँ,
इन लोगों को या खुद को,
इस मौसमी बारिश को,
या पूरे शासन तंत्र को,
आज तक मैंने ही कुछ नहीं किया देश के लिए,
बस यही सोच के मैं ज्यादा सोच नही पाई ।
अब तो लग रहा है जैसे ताबूत में आखिरी कील की जरूरत रह गयी है बस,
कितना दुख भरा है ऐसी मौत का अनुभव,
मेरा चिल्लाना अब मुझे ही नहीं सुन रहा है,
कोई मदद कर भी नहीं सकता,
बस अब ऐसी घुटन नहीं सही जाती,
और ऊपर से ये मुझे जमीन समझते नासमझ लोग,
अँधेरा हो गया है आंखों में, लेकिन अभी तो सुबह ही थी,
हम्म! मेरा आखिरी वक्त आ गया है।
अब मैं साँस नही ले सकती,
मुझे मेरे ऊपर खड़े लोगों का भार भी महसूस नहीं हो रहा,
मैं अब निर्जीव हूँ।
अब कोई दर्द नही होगा,
बस यही सोच कर खुश हूँ।
मैं अब आज़ाद हूँ।
कुछ चिल्ला रहे हैं औऱ कुछ मेरे शरीर की तरह निर्जीव हो गये है,
यह हृदय विदारक दृश्य, कौन रहा होगा इसका कारण;
खैर ये काम तो सबको आता है, अब सब कर ही लेंगे।
कोशिश कर रहे है मदद की, लेकिन व्यर्थ,
मदद की जगह ही नहीं है।
लोगों का चिल्लाना कम हुआ है और जिंदा लोगो की भीड़ कुछ मरे हुवे लोगों की भीड़ में बदल गयी है।
मैं भी इस नई भीड़ का हिस्सा हूँ।
अब केवल कुचले हुए लोग पड़े हैं।
वो वहाँ ऊपर मैं खुद को देख पा रही हूँ,
अच्छी लग रही थी सुबह आईने में तो,
अब तो सूरत ही नहीं पहचान पा रही हूँ।
हमें अलग इक्कठा किया जा रहा है,
जिंदा लोगों में से कुछ रो रहे हैं, कुछ चिल्ला रहे हैं,
किसी ने साथ वाले को खोया तो किसी ने खुद के शरीर को खोया,
नहीं, बस अब मैं और नहीं देख सकती।
मैं सोच रही हूं अब क्या होगा,
कुछ खबरी आएंगे और चिल्लायेंगे,
कुछ मदद वाले आएंगे,
जाँच समितियाँ बिठाई जाएंगी,
5-10 लाख रुपये दिए जाएंगे,
शोक व्यक्त होगा,
नेता कुछ नाटक करेंगे,
और फिर भूला दिए जायेंगे,
इस हद तक कि कोई बड़ा जमीनी बदलाव नही होगा,
यही सब पुराने राम भरोसे ब्रिज,
और वही मानसिकता,
ना कोई कुछ सीखेगा, न बोलेगा,
किस्मत में लिखा था ये सोच के भुला दिए जाएंगे,
देखा है मैंने बहुत बार, ऐसा ही होता है,
सबक सीखते तो ऐसा होना बन्द हो गया होता,
यही चलता आया है यही चलता रहेगा,
बशर्ते जब तक हर घर से या कम से कम हर नेता के घर से ऐसे किसी एक की मौत न हो जाये।
उम्मीद नहीं कि तब तक कुछ होगा भी,
कोई कुछ करना भी चाहे तो उसे किसी का आधार नहीं मिलता,
बस यही भारत है,
मेरे हक़ीक़त का भारत,
चमकता हुआ भारत,
विश्वगुरु भारत,
जहाँ मेरे जैसे इन बीसियों लोगो की जिंदगी की कोई कीमत नहीं है,
और जो अभी यहाँ नहीं है आज, उनके लिए ये केवल हादसा है जो कि होता रहता है,
उम्मीद केवल उनसे है जो मेरे ऊपर पाँव रख कर गए थे जिंदा रहने के लिए और जो जिंदा बच गए ,
उम्मीद है वो कुछ बदलाव का बिगुल बजायेंगे।
आज उनको भी उम्मीद से ज्यादा अफसोस होगा,
अब उम्मीद पे उनकी दुनिया कायम नही रहीं।
21 जने और भी मरे है, ऐसे ही सैकड़ो और भी मरेंगे,
उम्मीद है तो किसी और देश में अगले जन्म की,
बस यही सोच कर मैं जा रही हूँ....।
Monday, 18 September 2017
दुर्गा, आधी दुनिया और गालियाँ
आखिर क्यों?
क्यों बातों ही बातों में तुम वो सब कर देते हो जिसके लिए तुम ही ने, हाँ तुम ही ने निर्भया candle march निकाला था।
तुमने ही ऐसे इंसानो को सजा दिलवाने की मांग की थी।
क्यों अपने ही दोस्त की बहन मां के साथ वही सब बातों में कर देते हो ।
दूसरी ओर उसी नारी शक्ति को बातों से ही रौंद देते हो।
ओर दूसरी तरफ दूसरों की माओं के साथ बातों में ही....।
और दूसरे ही दिन तुम्हारा दोस्त तुम्हारी बहन के लिए कुछ भी कह जाता है और तुम हंस देते हो।
तो फिर जब मतलब ही नहीं है तो कहना ही क्यों है।
जब वो फेमिनिज्म की बातें करती है और दूसरी तरफ गालियां बकती है।
वो अपनी जाति की बराबरी की बाते करती है।
तो कोई और उस बारे में क्यों दिमाग लगाये।
समझो कि किसी की इज़्ज़त को यूं तार तार करना cool हो ही नही सकता।
कब तक अपने ही तिरस्कार पर यूँ मौन बनी रहोगी,
और कब तक अपना ही तिरस्कार करती रहोगी।
शक्ति जो ऐसे अपमान करने वालों पर प्रहार कर सके,
शक्ति जो केवल मूर्तियों और किताबों से निकल कर हक़ीक़त में आये।
Thursday, 10 August 2017
वक़्त तो लगता है
वो तेरा चेहरा,
जब देखा देखता ही रहा,
कई देर तक,
इतनी खूबसूरती को आंखों में समेटने के लिए
वक़्त तो लगता है।
वो ऐनक के पार तुम्हारी आंखे,
जिनसें तुम ये दुनिया देखती हो,
और मैं तुम्हारे अंदर देखने की कोशिश करता हूं,
आंखों में डूब कर वापिस आने में,
वक़्त तो लगता है।
वो तेरी प्यारी सी नाज़ुक नाक,
तुझे जिंदा रखे है,
और कितने जिन्दा है,
तुम्हे देखकर,
ये अंदाज़ा लगाने में,
वक़्त तो लगता है।
होठ तुम्हारे वो छोटे छोटे,
बिल्कुल धनुष के आकार के,
जब मिलते है एक दूजे से,
तीर निकलते जाते है,
उन तीरों से घायल होकर होश में आने में,
वक़्त तो लगता है।
तुम्हारी आवाज़,
सुनने को जिसकी खनक लोग तरसते है,
उस खनक से डगमगाये बिना,
तुम्हारी बात समझने की कोशिश करने में,
वक़्त तो लगता है।
वो घने काले बाल तुम्हारे,
कुछ एक दूसरे से उलझे हुए,
कुछ एक साथ इक्कठे होकर बंधे हुए,
कुछ एक तरफ गालों पर लटकते हुए,
सोच रहा हूँ कैसे इन बालों ने क्या जादू किया है,
काले बालों के जादू को समझने में,
वक़्त तो लगता है।
वो कोमल मुलायम मखमली नाज़ुक तुम्हारे हाथ,
किसी को छू ले तो घायल कर दे,
मेरे हाथों को उनसे मुलाकात करनी है,
हाथो को अपनी चाहत बयाँ करने में,
वक़्त तो लगता है।
वो तुम्हारी उंगलियां,
जब बालो की लट से खेलती है,
उस खेल में मैं अपना दिल हार जाता हूं,
इस खिलाड़ी की चाल समझने में,
वक़्त तो लगता है।
तुम्हारे ख्यालात,
एक बार आ जाते हैं तो बस जाते हैं
उन्हें दिमाग से निकाल कर,
कहीं और दिल लगाने में,
वक़्त तो लगता है।
मुस्कुराहटें तुम्हारी,
देख के हर कोई खुशनसीब समझे खुदको,
ऐसी मुस्कराहटों पे,
जान निसार करने में,
अब वक़्त नही लगता है।
-राघव कल्याणी
Sunday, 30 April 2017
परी, आनंद और अब्दुल
कल कुछ अलग मन हुआ,
सोचा जन्मदिन कुछ बच्चो के साथ मनाते है,
बच्चे भी कुछ खास,
कुछ HIV से बीमार और कुछ अनाथ।
सबके साथ कुछ वक्त बिताया,
कुछ मस्ती कुछ नचाया,
फिर सबको खाना परोसा,
सब खाना खा रहे थे,
कुछ धीरे, कुछ जल्दी,
कुछ को चावल पसंद नही थे,
किसी को खीर ज्यादा ही पसंद थी।
हम कोशिश कर रहे थे कि
जिसको जो चाहिए वो उसे तुरंत दे दें,
तभी एक आवाज़ आई,
देखा तो वो छोटी परी रो रही थी,
मेरे कुछ साथी दौड़ के उसके पास गए,
और पूछने लगे उसके रोने की वजह,
खाना अच्छा नहीं लगा या कुछ और चाहिए,
कुछ बड़े बच्चे उसकी रोते हुए की तरफ देख रहे थे,
कुछ बच्चे अभी भी अपने खाने में मग्न थे-
-शायद ये उनके दिन में से एक अच्छा वक्त होता है।
वो अच्छी थी, एक चॉक्लेट में खुश होगयी।
मैं वही खड़ा था,
सबको देखने समझने की कोशिश में शायद,
लेकिन कुछ ऐसा भी होता है इस दुनिया में,
जो देखने समझने के बाद भी हम अनदेखा नसमझा करना बेहतर समझते है,
देखा कि उन बच्चो में एक बच्चा गर्दन झुकाये खा रहा था,
और बार बार अपनी कलाई से अपने गालों को साफ कर रहा था।
अरे, ये तो वही है जो सबसे अच्छा नाच रहा था- आनंद।
समझ आया कि वो चुपचाप रो रहा था।
उसे भी खाना अच्छा नहीं लगा या
अपने घर के पुराने दिन याद आगये।
सोचा कि खाना पसंद नापसंद आना इन बच्चो के लिए कोई सवाल ही नहीं था।
सब इतनी किस्मत वाले कहाँ होते है।
पुराने दिन ही याद आये होंगें।
अपनी जानलेवा बीमारी पता लगने से पहले के दिन,
जब मां और कभी कभी पापा के साथ बैठ कर खाना खाया करता था।
और आज उन दिनों की याद आ गयी होगी अचानक,
खीर देख कर शायद।
मुझे भी आ रही थी।
एक पल ख्याल आया कि उसको जा के पूछूँ
क्या हुआ कुछ चाहिए वगैरा,
लेकिन हिम्मत नही हुई
पांव ही नही हिले ये सोच कर की,
उसने यदि बोल दिया की-
- घर जाना है,
तो मैं क्या कहूँगा!
यदि उसने कह दिया कि
उसे मम्मी के हाथ से ही खाना है
तो मैं क्या करूँगा!
नहीं, मैं उसे पूछ कर और परेशान नहीं कर सकता,
और उसका जवाब सुनकर मैं भी
अपनी मज़बूरी पर और परेशान नहीं होना चाहता,
इससे अच्छा है कि मन में ही उन दिनों को याद करके आंसू निकाल ले,
किसे पता है, उसका कारण जान कर कुछ और बच्चो का खाना मुश्किल हो जाये!
वो चॉक्लेट से नहीं मान सकता था,
इसलिए अपनी मज़बूरी का फायदा उठा कर
मैंने उसको अनदेखा नसमझा कर दिया।
परी को भी शायद कुछ याद आया होगा,
नहीं, उसको तो याद भी नही होगा
कि इससे पहले उसकी एक ज़िन्दगी और थी।
या ये भी हो सकता है कि,
आधे से ज्यादा बार उसे,
घर या घर वालो की बजाय,
चॉक्लेट ने ही खुश किया होगा,
चॉक्लेट से उसका रिश्ता ज्यादा था बजाय घर से!
ये सब सोच कर देख कर मुड़ा
कुछ और बच्चो को देखने
एक और छोटा बच्चा, अब्दुल,
खाने के बीच मे झपकियां ले रहा था,
वो मासूम चेहरा, झपकियों के साथ और भी कई गुना मासूम होगया था,
दिल पिघल जाता है कुछ नज़ारे देख कर,
इस बार मेरे पांव टिक नहीं पाए,
और उसे खिलाने उसकी तरफ चला गया।
चावल में थोड़ी सी पड़ी दाल सूख गयी थी,
कैसे खा सकेगा वो इसको,
लेकिन उनको सिखाया भी किसने होगा,
कि कितने चावल में कितनी दाल लेते है,
खीर थी तो वो खाने को राजी हो गया,
लेकिन उसे भी किशमिश पसंद नही थी खीर में-
ठीक मेरी तरह,
मेरे घर में तो सबको पता था
लेकिन अब्दुल के बारे में यहाँ,
किसी को पता भी होगा?
आओ कुछ करते है इन बच्चो के लिए,
जो आप अपने बच्चो के लिए करते है,
उसका एक छोटा सा टुकड़ा।
जिंदगी सबके साथ एक जैसी नहीं होती,
किसी को पलकों पर बिठा कर रखती है
तो किसी को पाँव में भी नहीं बिठाती!
जिंदगी है; मौत के जैसे इसके सामने भी
सबकी कहाँ चलती है!